गुरुवार, 12 नवंबर 2015

Ayurveda Essential Drugs For Hospital










श्वेत कुष्ठ (सफेद दाग) -

श्वेत कुष्ठ (सफेद दाग)   
जिस भी किसी व्यक्ति को सफेद दाग हो जाते हैं, उसे समाज हेय दृष्टि से देखता है। यहां तक कि जिस बच्चे या बच्ची के सफेद दाग होता है उसकी शादी तक रुक जाती है, जिससे मानसिक क्लेस होता है और समाज यह कहता है कि यह अपने बुरे कर्मो का फल भोग रहा है। कुछ हद तक यह बात सही भी है। परन्तु अगर रोग के विषय में सोचा जाये तो कोई भी रोग हो वह पीड़ादायक होता है और यहंा तक मेरा मानना है कि कोई भी मनुष्य इन रोगों से नही बचा है, प्रत्येक मनुष्य को कोई न कोई रोग है ही। इससे यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने बुरे कर्मो के फलस्वरूप अलग-अलग रोगों के कष्ठोें को झेलता है। परन्तु, प्रकृतिसत्ता माता आदिशक्ति जगत जननी जगदम्बा जी ने इन रोगों से उबरने के रास्ते भी आयुर्वेद एवं अन्य अनेक विधाओं के माध्यम से बताये है, जिन्हें अपना कर हम इन कष्टदायक रोगों से मुक्ति पा सकते है। यहां हम सफेद दाग सही करने वाले अपने अनुभवगम्य नुस्खे लिख रहें हैं पाठक गण इनका लाभ अवश्य उठायें । 
सफेद दाग क्या है ?
सफेद दाग भी एक तरह का कुष्ठ ही है, इसमें कुष्ठ की तरह चमड़ा बिगड़ जाता है। इसमें चमड़ी सफेद पड़ जाती है। यह दो तरह का होता है- पहला सफेद एवं दूसरा लाल। परन्तु, दोनों पीड़ा दायक ही हैं। गलित कुष्ठ और सफेद कुष्ठ में अन्तर यह है कि गलित कुष्ठ (कोढ़) टपकता है अर्थात् अंगों में गलन चालू हो जाती है, अंग गल-गल कर गिरने लगते हैं और सफेद दाग में चमड़ी सफेद या लाल कलर की हो जाती है। कोढ़ वात पित्त और कफ तीनों दोषों के प्रकोप से होता है, परन्तु सफेद दाग केवल एक दोष से होता है। कोढ़ रसादि समस्त धातुओं में रहता है पर सफेद दाग रुधिर, मांस और मेद में रहता है, बस यही गलित कोढ़ और सफेद कोढ़ (सफेद दाग) में अन्तर है। चरक, भाव प्रकाश आदि ग्रन्थों में अलग-अलग तरह से एक ही बात कही है कि वात जनित सफेद दाग से पित्त जनित एवं पित्त जनित सफेद दाग से कफ जनित सफेद दाग भारी होता है। जो सफेद दाग काले रोमों वाला, पतला, रुधिर युक्त और तत्काल का नया हो तथा आग से जलकर न हुआ हो, वह साध्य होता है। इसके सिवा सफेद दाग असाध्य होता है। 
खुजली, कोढ़, उपदंश, आतशक, भूतोन्माद, व्रण, ज्वर, हैजा, यक्ष्मा (टी.वी.) आंख दुखना, चेचक, जुकाम आदि छुतहे रोगों की श्रेणी में आते हैं। अतः ऐसे रोगियों के कपड़े, बिस्तर, खाने के बर्तन, मुख की सांस आदि से बचना चाहिए, नहीं तो रोग फैलने का खतरा रहता है और ऐसे रोगियों की चिकित्सा जल्दी ही करनी चाहिये जिससे यह रोग आगे न फैल सके।  
सफेद दाग निवारक नुस्खे  
1- पैर में मसलने की दवा 
कड़वा ग्वारपाठा (कड़वी घृतकुमारी) के गूदा को पीतल या कांसे या स्टील की थाली में डालकर उसमें रोगी के दोनों पैर गूदे में तब तक घिसे हैं, जब तक कि रोगी के मुंह में कड़वापन आ जाये। शुरू में 30 मिनट में मुंह कड़वा हो जाता है और बाद में कम समय में ही मुंह में कड़वापन आ जाता है। यह क्रिया प्रतिदिन दोनों समय लगातार कम से कम 90 दिन तक या अधिक दाग सही होने तक करनी है। इस क्रिया से खून की सफाई होती है और जो भी खाने व दागों मे लगाने की दवा दी जाती है वह जल्दी असर करती है। इसलिए सफेद दाग के रोगी को यह दवा का उपयोग जरूर करना चाहिये। 
2- सफेद दागों पर लगानें की दवा
(अ) 100 ग्राम एल की जड़ की छाल, 100 ग्राम तेन्दू की जड़ की छाल, 30 ग्राम सफेद अकौवा (श्वेतार्क) के पत्ते की भस्म, 30 ग्राम देशी खैर को कूट-पीसकर महीन बारीक करें और 30 ग्राम बाबची के तेल में मिलाकर रख लें। सफेद दागों पर इसका गौमूत्र के साथ मिलाकर सुबह शाम लेप करें। यह लेप लगातार दाग सही होने तक धैर्य के साथ करें। इससे दाग निश्चय ही सही होते हैं, समय जरूर लगता है।  
(ब) गुलाब के  ताजे फूल 50 ग्राम, अनार के ताजे फूल 50 ग्राम तथा सफेद आक के पत्ते 10 नग, इन सबको गौमूत्र के साथ पीसकर इसमें बाबची का तेल 30 ग्राम मिलाकर रख लें। इस लेप को सफेद दागों पर प्रतिदिन दोनों समय लगायें, इससे भी सफेद दाग चमड़ी के रंग के हो जाते हैं। यह दवा धैर्य के साथ दाग सही होने तक लगायें। 
(स) मालकागनी को 21 दिन तक गौमूत्र में डुबाकर रखने के बाद उसका तेल निकाल लें। उसको प्रतिदिन दोनों समय सफेद दागों पर दाग सही होने तक लगायें, इससे भी सफेद दाग सही होते है।    
3- सफेद दागों पर खाने की दवा
(क) त्रिफला 50 ग्राम, बायबिरंग 50 ग्राम, स्वर्णक्षीरी की जड़ 20 ग्राम, मेंहदी के फूल या छाल 20 ग्राम, चित्रक 10 ग्राम, असन के फूल 50 ग्राम, अमरबेल 50 ग्राम, शुद्ध बाबची 50 ग्राम, इन सबको कूट-पीसकर बारीक चूर्ण बना लें और एक डिब्बे में रख लें। 3 ग्राम दवा को गौमूत्र अर्क 10 ग्राम के साथ रात को सोते समय प्रतिदिन कम से कम 180 दिन या रोग सही होने तक का सेवन करें। 
नोट- बाबची को शुद्ध करने के लिये उसके बीजों को गौमूत्र में सुबह भिगो दें। 24 घंटे बाद गौमूत्र बदल दें। गौमूत्र बदलने की यह क्रिया 6 दिन लगातार करें। फिर बाबची को गौमूत्र से निकाल कर धूप में सुखा लें। इससे बाबची पूर्णतः शुद्ध हो जाती है। इसे ही दवा बनाने के उपयोग में लें।
(ख) कालीमिर्च, सौंफ, असगंध, सतावर, सेमरमूसर ब्रह्मदण्डी, इन सभी को कूट-पीसकर इन सबके बराबर मिश्री मिलाकर डिब्बे में रख लें। तीन ग्राम दवा खाली पेट सुबह गाय के घी के साथ खायें और उसके 1 घंटे बाद तक कुछ न खायें। यह दवा रोग सही होने के एक महीने बाद तक खानी है। इससे खून शुद्ध होता है और सफेद दाग वाली चमड़ी अपने ओरिजनल कलर में धीरे-धीरे आ जाती है। 
(ग) असली मलयागिरी चन्दन बुरादा 50 ग्राम, चाँदी की भस्म 12 ग्राम, सफेद मूसली 100 ग्राम, कंुजा मिश्री 100 ग्राम, छोटी इलायची 100 दाना, इन सभी को कुट-पीसकर एक डिब्बे में रख लें। 10 ग्राम दवा को 5 ग्राम गौमूत्र अर्क के साथ सुबह नास्ता के पहले एवं शाम को खाना खाने के बाद 120 दिन तक लगातार लें। साथ ही इस दवा के खाने के एक घंटे बाद खदिरारिष्ट तथा कुमारीआशव की चार-चार ढक्कन दोनों दवाओं को मिलाकर पीयें। इससे भी सफेद दाग सही हो जाते है। 
परहेज - दवा सेवन समय तक प्रत्येक तरह का नमक पूर्णतः बन्द कर दें। इस रोग मेें नमक का परहेज आवश्यक है अगर हम दवा सेवन समय में नमक का सेवन करंेगे तो दवा का पूर्ण लाभ नहीं मिल पायेगा। साथ ही खटाई, तली चीजें, लाल मिर्च आदि का सेवन और मांसाहार एवं शराब पूर्णतः वर्जित र्है

कृमि रोग की चिकित्सा

सैकड़ों बीमारियों की जड़ पेट के कीडे़

       इस सम्पूर्ण सृष्टि में मानव शरीर सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए हर प्रकार से हमें इसकी रक्षा करनी चाहिये। परन्तु, मानव अपनी क्षणिक मानसिक तृप्ति के लिये तरह-तरह के सडे़-गले व्यंजन जो शरीर के लिये हानिकारक हैं, खाता रहता है। इससे शरीर में अनेकों तरह के कीडे़ पैदा हो जाते हैैं और यही शरीर की अधिकतर बीमारियों के जनक बनते हैैं। ये कीडे़ दो तरह के होते हैं। प्रथम, बाहर के कीडे़ और द्वितीय, भीतर के कीडे़। बाहर के कीडे़ सर में मैल और शरीर में पसीने की वजह से जन्मते हैं, जिन्हंे जूँ, लीख और चीलर आदि नामों से जानते हैं। अन्दर के कीड़े तीन तरह के होते हैं। प्रथम पखाने से पैदा होते हैैं, जो गुदा में ही रहते हैं और गुदा द्वार के आसपास काटकर खून चूसते हैं। इन्हे चुननू आदि अनेकों नामों से जानते हैं। जब यह ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे डकार में भी पखाने की सी बदबू आने लगती है। दूसरे तरह के कीडे़ कफ के दूषित होने पर पैदा होते हैं, जो छः तरह के होते हैं। ये आमाशय में रहते हैं और उसमें हर ओर घूमते है। जब ये ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे डकार में भी पखाने की सी बदबू आने लगती है। तीसरे तरह के कीडे़ रक्त के दूषित होने पर पैदा हो सकते हैं, ये सफेद व बहुत ही बारीक होते हैं और रक्त के साथ-साथ चलते हुये हृदय, फेफडे़, मस्तिष्क आदि में पहुँचकर उनकी दीवारों में घाव बना देते हैं। इससे सूजन भी आ सकती है और यह सभी अंग प्रभावित होने लगते हैं। इनके खून में ही मल विसर्जन के कारण खून भी धीरे-धीरे दूषित होने लगता है, जिससे कोढ़ जनित अनेकों रोग होने का खतरा बन जाता है। 
      एलोपैथिक चिकित्सा के मतानुसार अमाशय के कीड़े खान-पान की अनियमितता के कारण पैदा होते हैं,जो छः प्रकार के होते है। 1- राउण्ड वर्म 2- पिन वर्म 3- हुक वर्म 5-व्हिप वर्म 6-गिनी वर्म आदि तरह के कीडे़ जन्म लेते हैं।  
कीडे़ क्यों पैदा होते हैं  बासी एवं मैदे की बनी चीजें अधिकता से खाने, ज्यादा मीठा गुड़-चीनी अधिकता से खाने, दूध या दूध से बनी अधिक चीजें खाने, उड़द और दही वगैरा के बने व्यंजन ज्यादा मात्रा में खाने, अजीर्ण में भोजन करने, दूध और दही के साथ-साथ नमक लगातार खाने, मीठा रायता जैसे पतले पदार्थ अत्यधिक पीने से मनुष्य शरीर में कीडे़ पैदा हो जाते हैं। 
कीडे़ पैदा होने के लक्षण एवं बीमारियाँ  शरीर के अन्दर मल, कफ व रक्त में अनेकों तरह के कीडे़  पैदा होते हैं। इनमें खासकर बड़ी आंत में पैदा होने वाली फीता कृमि (पटार) ज्यादा खतरनाक होती है। जो प्रत्येक स्त्री-पुरूष व बच्चों के पूरे जीवनकाल में अनेकों बीमारियों केा जन्म देती हैं, जो निम्नवत है:
1- आंतांे में कीड़ों के काटने व उनके मल विसर्जन से सूजन आना, पेट में हल्का-हल्का दर्द, अजीर्ण, अपच, मंदाग्नि, गैस, कब्ज आदि का होना।
2- शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ना, जिससे अनेकों रोगों का आक्रमण ।
3- बड़ों व बच्चों में स्मरण शक्ति की कमी, पढ़ने में मन न लगना, कोई बात याद करने पर भूल जाना।
4- नींद कम आना, सुस्ती, चिड़चिड़ापन, पागलपन, मिर्गी, हाथ कांपना, पीलिया रोग आदि होना। 
5- पित्ती, फोड़े, खुजली, कोढ़, आँखों के चारों ओर सूजन, मुँह में झंाई, मुहांसे आदि होना।
6- पुरुषों में प्रमेह, स्वप्नदोष, शीघ्रपतन, बार-बार पेशाब जाना आदि।
श्7-स्त्रियों की योनि से सफेद पदार्थ बराबर निकलना, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर आदि।
8- बार-बार मुँह में पानी आना, अरुचि तथा दिल की धड़कन बढ़ना, ब्लडप्रेशर आदि।
9- ज्यादा भूख लगना, बार-बार खाना, खाने से तृप्ति न होना, पेट निकल आना।
10- भूख कम लगना, शरीर कमजोर होना, आंखो की रोशनी कमजोर होना।
11- अच्छा पौष्टिक भोजन करने पर भी शरीर न बनना क्योंकि पेट के कीड़े आधा खाना खा जाते है।
12- फेफड़ो की तकलीफ, सांस लेने में दिक्कत, दमा की शिकायत, एलर्जी आदि।
13- बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में कमी आना।
14- बच्चों का दांत किटकिटाना, बिस्तर पर पेशाब करना, नींद में चौंक जाना, उल्टी होना।
15- आंतो में कीड़ो के काटने पर घाव होने से लीवर एवं बड़ी आंत में कैंसर होने का खतरा। (कैंसर के जीवाणु खाना के साथ लीवर व आंत में पहुँचकर कीड़ो के काटने से हुए घाव में सड़न पैदा कर कैंसर का रूप ले लेते हैं)
      ये कीड़े संसार के समस्त स्त्री-पुरुष व बच्चों में पाये जाते है। यह छोटे-बडे 1 सेन्टीमीटर से 1मीटर तक लम्बे हो सकते हैं एवं इनका जीवनकाल 10से12वर्ष तक रहता है। यह पेट की आंतो को काटकर खून पीते है जिससे आंतो में सूजन आ जाती है। साथ ही यह कीड़े जहरीला मल विसर्जित भी करते हैं जिससे पूरा पाचन तंत्र बिगड़ जाता है। यह जहरीला पदार्थ आंतो द्वारा खींचकर खून में मिला दिया जाता है जिससे खून में खराबी आ जाती है। यही दूषित खून पूरे शरीर के सभी अंगों जैसे हृदय, फेफड़े, गुर्दे, मस्तिष्क आदि में जाता है जिससे इनका कार्य भी बाधित होता है और अनेक रोग जन्म ले लेते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ जाती है और अनेक रोग हावी हो जाते हैं। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को प्रतिवर्ष कीड़े की दवा जरूर लेनी चाहिए। एलोपैथिक दवाओं में ज्यादातर कीड़े मर जाते हैं, परन्तु जो ज्यादा खतरनाक कीड़े होते हैं, जैसे- गोलकृमि, फीताकृमि, कद्दूदाना आदि, जिन्हें पटार भी कहते हैं, वे नहीं मरतें हैं। इन कीड़ों पर एलोपैथिक दवाओं को कोई प्रभाव नहीं पडता है, इन्हें केवल आयुर्वेदिक दवाओं से ही खत्म किया जा सकता है। ये कीड़े मरने के बाद फिर से हो जाते हैं। इसका कारण खान-पान की अनियमितता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये प्रत्येक वर्ष कीड़े की दवा अवश्य खानी चाहिये।  
कृमि रोग की चिकित्सा 
1- बायबिरंग, नारंगी का सूखा छिलका, चीनी(शक्कर) को समभाग पीसकर रख लें। 6ग्राम चूर्ण को सुबह खाली पेट सादे पानी के साथ 10दिन तक प्रतिदिन लें। दस दिन बाद कैस्टर आयल (अरंडी का तेल) 25ग्राम की मात्रा में शाम को रोगी को पिला दें। सुबह मरे हुए कीड़े निकल जायेंगे।
2- पिसी हुई अजवायन 5ग्राम को चीनी के साथ लगातार 10दिन तक सादे पानी से खिलाते रहने से भी कीड़े पखाने के साथ मरकर निकल जाते है।
3- पका हुआ टमाटर दो नग, कालानमक डालकर सुबह-सुबह 15 दिन लगातार खाने से बालकों के चुननू आदि कीड़े मरकर पखाने के साथ निकल जाते है। सुबह खाली पेट ही टमाटर खिलायें, खाने के एक घंटे बाद ही कुछ खाने को दें।
4- बायबिरंग का पिसा हुआ चूर्ण तथा त्रिफला चूर्ण समभाग को 5ग्राम की मात्रा में चीनी या गुड़ के साथ सुबह खाली पेट एवं रात्रि में खाने के आधा घंटे बाद सादे पानी से लगातार 10दिन दें। सभी तरह के कृमियों के लिए लाभदायक है।
5- नीबू के पत्तों का रस 2ग्राम में 5 या 6 नीम के पत्ते पीसकर शहद के साथ 9 दिन खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।
6- पीपरा मूल और हींग को मीठे बकरी के दूध के साथ 2ग्राम की मात्रा में 6दिन खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

कफ रोग --चिकित्सा

कफ

       यह शरीर आयुर्वेद के मतानुसार त्रिधातु में बंटा है जब तक शरीर में त्रिधातु (बात, पित्त, कफ) समानता की स्थिति में रहत है, वह स्वस्थ रहता है। किन्तु, उनकी असामानता की स्थिति में अनेकों रोगों का जन्म होता है, इस बार हम त्रिधातु के तीसरे अंग कफ के बारे में जारकारी दे रहें हैैं। कफ चिकना, भारी, सफेद, पिच्छिल (लेसदार) मीठा तथा शीतल(ठंडा) होता हैं। विदग्ध(दूषित) होने पर इसका स्वाद नमकीन हो जाता है। कफ से सम्बन्धित तकलीफ लगभग 31 प्रतिशत लोगों को रहती है। 
 कफ के स्थान, नाम और कर्म
आमाशय में, सिर (मस्तिष्क) में, हृदय में और सन्धियों (जोड़ों) में रहकर शरीर की स्थिरता और पुष्टि को करता है। 
1- जो कफ आमाशय में अन्न को पतला करता है, उसे क्लेदन कहते हैं।
2- जो कफ मूर्धि (मस्तिष्क) में रहता है, वह ज्ञानेन्द्रियों को तृप्त और स्निग्ध करता है। इसलिए  
 उसको स्नेहन कफ कहते हैं।
3- जो कफ कण्ठ में रहकर कण्ठ मार्ग को कोमल और मुलायम रखता है तथा जिव्हा की रस ग्रन्थियों को क्रियाशील बनाता है और रस व ज्ञान की शक्ति उत्पन्न करता है,उसको रसन कफ कहते हैं।
4- हृदय में (समीपत्वेन उरःस्थित)रहने वाला कफ अपनी स्निग्धता और शीतलता से सर्वदा हृदय की रक्षा करता है। अतः उसको अवलम्बन कफ कहते हैं।
5- सन्धियों (जोड़ों) में जो कफ रहता है, वह उन्हें सदा चिकना रखकर कार्यक्षम बनाता है। उसको संश्लेष्मक कफ कहते है। 
कफ जनित रोग 
 1- तन्द्रा
 2- अति निद्रा
 3- निद्रा
 4- मुख का माधुर्य - मुख के स्वाद का मीठा होना 
 5- मुख लेप - मुख का कफ से लिप्त रहना 
 6- प्रसेतका - मुख से जल का श्राव होना
 7- श्वेत लोकन - समस्त पदार्थो का सफेद दिखना
 8- श्वेत विट्कता - पुरीष का श्वेत वर्ण होना 
 9- श्वेत मूत्रता - मूत्र के वर्ण का श्वेत होना
10- श्वेतड़वर्णता - अंगो के वर्ण का श्वेत होना
11- शैत्यता - शीत प्रतीति
12- उष्णेच्छा - उष्ण पदार्थ और उष्णता की इच्छा
13- तिक्त कामिता - कड़वे और तीखे पदार्थांे की अभिलाषा
14- मलाधिक्य - मल की अधिकता 
15- बहुमूत्रता - मूत्र का अधिक आना
16- शुक्र बहुल्यता - वीर्य की अधिकता
17- आलस्य - आलस्य अधिक आना
18- मन्द बुद्धित्व - बुद्धि की मन्दता
19- तृप्ति - भोजनेच्छा का अभाव
20- घर्घर वाक्यता - वर्णांे के स्पष्टोचारण का अभाव तथा जड़ता।
कफ प्रकोप और शमन -
मधुर (मीठा), स्निग्ध (चिकना), शीतल (ठंडा) तथा गुरु पाकी आहारों के सेवन से प्रातःकाल में भोजन करने के उपरान्त में परिश्रम न करने से श्लेष्मा (कफ) प्रकुपित होता है और उपरोक्त कारणों के विपरीत आचरण करने से शान्त होता है।
कफ प्रकृति के लक्षण- 
कफ प्रकृति मनुष्य की बुद्धि गंभीर होती है। शरीर मोटा होता है तथा केश चिकने होते हैैं। उसके शरीर में बल अधिक होता हैंे, निद्रावस्था में जलाशयों (नदी, तालाब आदि) को देखता है, अथवा उसमें तैरता है। 
कफ रोग निवारक दवायें  
1-सर्दी व जुकाम 
o-काली मिर्च का चूर्ण एक ग्राम सुबह खाली पेट पानी के साथ प्रतिदिन लेते रहने से सर्दी जुकाम की शिकायत दूर होती है। 
      o- दो लौंग कच्ची, दो लौंग भुनी हुई को पीसकर शहद में मिलाकर सुबह खाली पेट एवं रात्रि में खाने के आधा घंटे के बाद लें, कफ वाली खांसी में आराम आ जायेगा। 
2- श्वासनाशक कालीहल्दी 
कालीहल्दी को पानी में घिसकर एक चम्मच लेप बनायंे। साथ ही एक चम्मच शहद के साथ सुबह खाली पेट दवा नित्य 60 दिन खाने से दमा रोग में आराम हो जाता है।
3- कफ पतला हो तथा सूखी खांसी सही हो
शिवलिंगी, पित्त पापड़ा, जवाखार, पुराना गुड़, यह सभी बराबर भाग लेकर पीसें और जंगली बेर के बराबर गोली बनायें। एक गोली मुख में रखकर उसका दिन में दो तीन बार रस चूसंे। यह कफ को पतला करती है, जिससे कफ बाहर निकल जाता है तथा सूखी खांसी भी सही होती है।  
4- दमा रोग
20 ग्राम गौमूत्र अर्क में 20 ग्राम शहद मिलाकर प्रतिदिन सुबह खाली पेट 90 दिन तक पीने से दमा रोग में आराम हो जाता है। इसे लगातार भी लिया जा सकता है, दमा, टी.वी. हृदय रोग एवं समस्त उदर रोगों में भी लाभकारी है।
5- कुकुर खांसी
धीमी आंच में लोहे के तवे पर बेल की पत्तियों को डालकर भूनते-भूनते जला डालें। फिर उन्हें पीसकर ढक्कन बन्द डिब्बे में रख लें और दिन में तीन या चार बार सुबह, दोपहर, शाम और रात सोते समय एक माशा मात्रा में 10 ग्राम शहद के साथ चटायें, कुछ ही दिनों के सेवन से कुकुर खांसी ठीक हो जाती हैै। यह दवा हर प्रकार की खांसी में लाभ करती है।
6- गले का कफ
 पान का पत्ता 1 नग, हरड़ छोटी 1 नग, हल्दी आधा ग्राम, अजवायन 1 ग्राम, काला नमक आवश्यकतानुसार, एक गिलास पानी में डालकर पकायें आधा गिलास रहने पर गरम-गरम दिन में दो बार पियें । इससे कफ पतला होकर निकल जायेगा। रात्रि में सरसों के तेल की मालिश गले तथा छाती व पसलियांे में करें।
7- खांसी की दवा-
भूरी मिर्च 5 ग्राम, मुनक्का बीज निकला 20 ग्राम, मिश्री 20 ग्राम, छोटी पीपर 5 ग्राम तथा छोटी इलायची 5 ग्राम, इन सभी को पीसकर चने के बराबर गोली बना लें। सुबह एक गोली मुँह में डाल कर चूसें। इसी तरह दोपहर और शाम को भी चूसें। कफ ढ़ीला होकर निकल जाता है और खांसी सही हो जाती है।   
8- गला बैठना
दिन में तीन या चार बार कच्चे सुहागे की चने बराबर मात्रा मुंह में डालकर चूसें। गला निश्चित ही खुल जाता है और मधुर आवाज आने लगती है। गायकों के लिए यह औषधि अति उत्तम है।
9- श्वास 
पीपल की छाल को रविपुष्य या गुरुपुष्य के दिन सुबह न्यौता देकर तोड़ लाएं और सुखाकर रख लें। माघ पूर्णिमा को बारह बजे रात में कपिला गाय के दूध में चावल की खीर बनाकर उसमें एक चुटकी दवा डाल लें और चांदनी रात में तीन घंटे रखकर मरीज को खिलाएं श्वास रोग के लिए अत्यंत लाभकारी है

पित्त रोग--चिकित्सा

पित्त
        यह स्पर्श और गुण में उष्ण होता है, अर्थात् अग्नि रूप होता है एवं द्रव (तरल) रूप में रहता है। इसका वर्ण पीला एवं नीला होता है। यह सत्त्वगुण प्रधान होता है, रस में कटु (चरपरा) और तिक्त (कड़वा) होता है तथा दूषित होने पर खट्टा हो जाता है।  
पित्त प्रकृति के लक्षण
    पित्त प्रकृति मनुष्य के बाल समय से पहले ही श्वेत हो जाते हैं, परन्तु वह बुद्धिमान् होता है। उसे पसीना अधिक आता है। उसके स्वभाव में क्रोध अधिक होता है और इस तरह का मनुष्य निद्रावस्था में चमकीली चीजें देखता है।  
पित्त के स्थान एवं कार्य
        अग्नाशय (पक्वाशय के मध्य) में अग्नि रूप (पाचक रूप) परिमाण की स्थिति में रहता है। इसको पाचक पित्त कहते हैं। यह चतुर्दिक आहार को पचाता है। इसका वर्णन इस प्रकार भी किया जा सकता है:
        त्वचा (चमड़ी) में जो पित्त रहता है, वह त्वचा में कांति (प्रभा)की उत्पत्ति करता है और शरीर की वाह्य त्वचा पर लगाये हुये लेप और अभ्यंग को पचाता (शोषण करता) है। यह शरीर के तापमान को स्थिर रखता है। इसको श्राजक पित्त कहते हैं।
        जो पित्त दोनों नेत्रों में रहकर (कृष्ण-पीतादि)रूपोें का ज्ञान देता हैै, उसको आलोचक (दिखाने वाला) पित्त कहते है। जो पित्त हृदय में रहकर मेधा (धारणाशक्ति) और प्रज्ञा (बुद्धि) को देता है, वह ‘साधक’ पित्त होता है। 
      इस प्रकार नाम और कर्म भेद से पित्त पाँच प्रकार का होता है। और यही पित्त समग्र शरीर को उत्तम रखने का कारण है।
पित्त रोग वर्णन             
        अब पित्त से होने वाले 40 रोगों का वर्णन किया जाता है:
1. धूमोद्वार    -   ( डकार से निकलने वाली वायु धंुए सा प्रतीत होता है )।
2. विदाह     -   ( इसमें हाथ, पांव, नेत्रादि में जलन होती है )।
3. उष्णाड्डत्व   -   ( शरीर के अंगों का गरम रहना )।
4. मतिभ्रम    -   ( पित्त की अत्यधिक वृद्धि से बुद्धि श्रमित हो जाती है )।
5. कांति हानि  -   ( शरीर के वर्ण में मलिनतायुक्त पीत वर्ण का बोध होना )।
6. कंठ शोष   -   ( कंठ का सूखना )।
7. मुख शोष  -   ( मुख का सूखना )।
8. अल्प शुक्रता -   ( वीर्य का अल्प होना )।
9. तिक्तास्यता -   ( मुख का स्वाद कड़वा रहना )।
10. अम्लवक्त्रता -   ( मुख का स्वाद खट्टा सा रहे )।
11. स्वेदस्त्राव  -   ( पसीने का अधिक आना )।
12. अंग पाक  -   ( पित्ताधिक्य के कारण शरीर का पक जाना )।
13. क्मल      -   ( परिश्रम के बिना ही थकावट का होना )।
14. हरितवर्णत्व -   ( पित्त के मलयुक्त होने पर हरा सा वर्ण होता है )।
15. अतृप्ति    -   ( भोजनादि में तृप्ति नहीं होती )।
16. पीत गात्रता -   ( अंगों का पीला होना )।
17. रक्त स्त्राव -   ( रुधिर प्रवृत्ति )।
18. अंग दरण  -   ( अंगों में दरण्वत पीड़ा )।
19. लोह गन्धास्यता-   ( निःश्वसित श्वास में लोहे की गन्ध का होना )।
20. दौर्गान्ध्य   -   ( पसीने में दुर्गन्ध का आना )। 
21. पीतमूत्रता  -   ( मूत्र का पीत वर्ण होना )।
22. अरति     -   ( बेचैनी का होना )।
23. पीत विट्कता -   ( पुरीष का पीत होना )।
24. पीतावलोकन -   ( पीला ही पीला दिखना )।
25. पीत नेत्रता -   ( नेत्रों का पीला होना )।
26. पीत दन्तता -   ( दांतांे का पीला होना )। 
27. शीतेच्छा    -   ( शीतल पदार्थ और शीतल वायु की अभिलाषा सर्वदा होना )।
28. पीतनखता -   ( नाखूनों का पीला होना )।
29. तेजो द्वेष   -   ( अत्यंत चमकीली वस्तुओं से द्वेष )।
30. अल्पनिद्रा  -    ( थोड़ी निद्रा का आना )।
31. कोप      -    ( क्रोधी स्वभाव का होना )।
32. गात्रसाद   -    ( अं्रगों में द्रढता का अभाव )।
33. भिलविट्कता -    ( पुरीष का द्रव रूप में आना )।
34. अन्धता    -    ( नेत्र ज्योति का हृास )।
35. उष्णोच्छवास -    ( वायु का गरम होकर आना )।
36. उष्ण मूत्रता -    ( मूत्र का गरम होना )।
37. उष्ण मानता -    ( मल का स्पशौषणा होना )।
38. तमसोदर्शन -    ( अन्धकार का दिखना )।
39. पीतमण्डल दर्शन -  ( पीले मण्डलों का दिखना )।
40. निःसहत्व -    ( सहन शक्ति का अभाव होना )।
इस प्रकार पित्त जनित ये 40 रोग हैः  
पित्त प्रकोप एवं शमन            
         विदाहि ( वंश, करीरादि पित्त प्रकोपक ), कटु (तीक्ष्ण), अम्ल (खट्टे) एवं अत्युष्ण भोजनों (खानपानादि) के सेवन से, अत्यधिक धूप अथवा अग्नि सेवन से, क्षुधा और प्यास के रोकने से, अन्न के पाचन काल में, मध्याह्न में और आधी रात के समय उपरोक्त कारणों से पित्त का कोप ( पित्त का दुष्ट ) होता है। इन कारणों के विपरीत (उल्टा) आचरण करने से और विपरीत समयों में पित्त का शमन होता है। 
 पित्तजनित दोषों को दूर करने हेतु औषधि
1- शतावरी का रस दो तोला में मधु पांच ग्राम मिलाकर पीने से पित्त जनित शूल दूर होता है।
2- हरड,़ बहेड़ा, आंवला, अमलतास की फली का गूदा, इन चारों औषधियों के काढे़ में खांड़ और शहद मिलाकर पीने से रक्तपित्त और पित्तजनित शूल (नाभिस्थान अथवा पित्त और पित्तजनित शूल ) नाभिस्थान अथवा पित्त वाहिनियों में पित्त संचित और अवरुद्ध होने से उत्पन्न होने वाले शूल को अवश्य दूर करता है। 
नोट- काढ़ा बनाने हेतु दवा के मिश्रण से 16 गुना पानी डालकर मंद आंच में पकायें। जब पानी एक चौथाई रह जाये, तो उसे ठंडा करके पीना चाहिये। इस काढ़ा की मात्रा चार तोला के आसपास रखनी चाहिए।  
3- पीपल (गीली) चरपरी होने पर भी कोमल और शीतवीर्य होने से पित्त को शान्त करती है।
4- खट्टा आंवला, लवण रस और सेंधा नमक भी शीतवीर्य होने से पित्त को शान्त करती है।
5- गिलोय का रस कटु और उष्ण होने पर भी पित्त को शान्त करता है।
6- हरीतकी (पीली हरड़) 25 ग्राम, मुनक्का 50 ग्राम, दोनों को सिल पर बारीक पीसकर उसमें 75 ग्राम बहेड़े का चूर्ण मिला लें। चने के बराबर गोलियां बनाकर प्रतिदिन प्रातःकाल ताजा जल से दो या तीन गोली सेवन करें। इसके सेवन से समस्त पित्त रोगों का शमन होता है। हृदय रोग, रक्त के रोग, विषम ज्वर, पाण्डु-कामला, अरुचि, उबकाई, कष्ट, प्रमेह, अपरा, गुल्म आदि अनेक ब्याधियाँ नष्ट होती हैं।
7- 10 ग्राम आंवला रात्रि में पानी में भिगो दें। प्रातःकाल आंवले को मसलकर छान लें। इस पानी में थोड़ी मिश्री और जीरे का चूर्ण मिलाकर सेवन करें। तमाम पित्त रोगों की रामबाण औषधि है। इसका प्रयोग 15-20 दिन करना चाहिए।
8- शंखभस्म 1ग्राम, सोंठ का चूर्ण आधा ग्राम, आँवला का चूर्ण आधा ग्राम, इन तीनों औषधियों को शहद में मिलाकर सुबह खाली पेट एवं शाम को खाने के एक घण्टे बाद लेने से अम्लपित्त दूर होता है।
नोट- वैसे तो सभी नुस्खे पूर्णतः निरापद हैं, परन्तु फिर भी इन्हें किसी अच्छे वैद्य से समझकर व सही दवाओं का चयन कर उचित मात्रा में सेवन करें, तो ही अच्छा रहेगा। गलत रूप से किसी दवा का सेवन नुकसान दायक भी हो सकता है